बिहार के दलित नेता हाल के सालों में कभी उतने हाशिए पर नहीं थे, जितने मौजूदा समय में पहुंच गए हैं। बिहार चुनाव के नतीजों के बाद लोकजनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के जीतन राम मांझी राजनीतिक सौदेबाज़ी की स्थिति में नहीं रहे हैं।
इनके अलावा बीते मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री रहे रमई राम, श्याम रजक और विधानसभा के पूर्व स्पीकर उदय नारायण चौधरी जैसे वरिष्ठ दलित नेताओं को भी अपना पद गंवाना पड़ा है। इनमें रमई राम और श्याम रजक तो लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और नीतीश कुमार की कैबिनेट के अहम सदस्य थे।
रमई राम और उदय नारायण चौधरी चुनाव हार गए, इसलिए उन्हें जगह नहीं मिली जबकि जीत दर्ज करने के बाद भी श्याम रजक को मंत्रिमंडल से बाहर रखने का फ़ैसला चौंकाने वाला है। मगर पासवान और मांझी की पार्टियों का प्रदर्शन सर्वाधिक चौंकाने वाला रहा।
पासवान दुसाध जाति से हैं जबकि मांझी दलितों में सबसे पिछड़े मुसहर जाति से हैं। ये दोनों जातियां बिहार में आबादी के हिसाब से काफ़ी अहम हैं। दुसाध और मुसहर मिलकर बिहार की 15.72 फ़ीसदी दलितों की आबादी में क़रीब आधे हैं, इसलिए भाजपा इन्हें अहम मान रही थी।
यह दूसरी बात है कि पासवान और मांझी ने बिहार में सबसे बड़े दलित नेता के बतौर उभरने की होड़ में एक दूसरे का असर ख़त्म कर दिया। लोकजनशक्ति पार्टी बिहार में 42 सीटों पर चुनावी मैदान में उतरी और महज दो सीटें जीत सकी जबकि हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा ने 21 जगहों पर उम्मीदवार उतारे और उसे महज़ एक सीट पर जीत मिली।
हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा की ओर से केवल जीतन राम मांझी चुनाव जीत पाए, दो सीटों पर लड़े थे, एक जगह से हार गए। इमामगंज से उन्होंने एक अन्य वरिष्ठ दलित नेता उदय नारायण चौधरी को हराया।
पासवान और मांझी से उलट रमई राम, उदय नारायण चौधरी और श्याम रजक जिन जातियों से हैं, वे बिहार में बहुत प्रभावी स्थिति में नहीं है। रमई राम रविदास समुदाय से आते हैं। इस समुदाय की बिहार में ख़ासी आबादी है लेकिन उत्तर प्रदेश की तुलना में कम है।
उत्तर प्रदेश में रविदास 21.15 दलित आबादी में क़रीब दो तिहाई हैं। उदय नारायण चौधरी पासी (ताड़ी बेचने वाले) समुदाय से हैं जबकि श्याम रजक धोबी समुदाय से हैं। इन दोनों की बिहार में बहुत ज़्यादा आबादी नहीं है।
इस वजह से दोनों बिहार में दलितों के सबसे बड़े नेता के तौर पर नहीं उभर सकते। मांझी 20 मई, 2014 से पहले तक कभी दलितों के नेता नहीं रहे। इसी दिन नीतीश कुमार ने इस्तीफ़ा देकर मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था। नीतीश ने मांझी को मुख्यमंत्री का पद दिया और इस पद ने मांझी को दलित नेता के तौर पर आवाज़ भी दी।
इनके अलावा बीते मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री रहे रमई राम, श्याम रजक और विधानसभा के पूर्व स्पीकर उदय नारायण चौधरी जैसे वरिष्ठ दलित नेताओं को भी अपना पद गंवाना पड़ा है। इनमें रमई राम और श्याम रजक तो लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और नीतीश कुमार की कैबिनेट के अहम सदस्य थे।
रमई राम और उदय नारायण चौधरी चुनाव हार गए, इसलिए उन्हें जगह नहीं मिली जबकि जीत दर्ज करने के बाद भी श्याम रजक को मंत्रिमंडल से बाहर रखने का फ़ैसला चौंकाने वाला है। मगर पासवान और मांझी की पार्टियों का प्रदर्शन सर्वाधिक चौंकाने वाला रहा।
पासवान दुसाध जाति से हैं जबकि मांझी दलितों में सबसे पिछड़े मुसहर जाति से हैं। ये दोनों जातियां बिहार में आबादी के हिसाब से काफ़ी अहम हैं। दुसाध और मुसहर मिलकर बिहार की 15.72 फ़ीसदी दलितों की आबादी में क़रीब आधे हैं, इसलिए भाजपा इन्हें अहम मान रही थी।
यह दूसरी बात है कि पासवान और मांझी ने बिहार में सबसे बड़े दलित नेता के बतौर उभरने की होड़ में एक दूसरे का असर ख़त्म कर दिया। लोकजनशक्ति पार्टी बिहार में 42 सीटों पर चुनावी मैदान में उतरी और महज दो सीटें जीत सकी जबकि हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा ने 21 जगहों पर उम्मीदवार उतारे और उसे महज़ एक सीट पर जीत मिली।
हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा की ओर से केवल जीतन राम मांझी चुनाव जीत पाए, दो सीटों पर लड़े थे, एक जगह से हार गए। इमामगंज से उन्होंने एक अन्य वरिष्ठ दलित नेता उदय नारायण चौधरी को हराया।
पासवान और मांझी से उलट रमई राम, उदय नारायण चौधरी और श्याम रजक जिन जातियों से हैं, वे बिहार में बहुत प्रभावी स्थिति में नहीं है। रमई राम रविदास समुदाय से आते हैं। इस समुदाय की बिहार में ख़ासी आबादी है लेकिन उत्तर प्रदेश की तुलना में कम है।
उत्तर प्रदेश में रविदास 21.15 दलित आबादी में क़रीब दो तिहाई हैं। उदय नारायण चौधरी पासी (ताड़ी बेचने वाले) समुदाय से हैं जबकि श्याम रजक धोबी समुदाय से हैं। इन दोनों की बिहार में बहुत ज़्यादा आबादी नहीं है।
इस वजह से दोनों बिहार में दलितों के सबसे बड़े नेता के तौर पर नहीं उभर सकते। मांझी 20 मई, 2014 से पहले तक कभी दलितों के नेता नहीं रहे। इसी दिन नीतीश कुमार ने इस्तीफ़ा देकर मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था। नीतीश ने मांझी को मुख्यमंत्री का पद दिया और इस पद ने मांझी को दलित नेता के तौर पर आवाज़ भी दी।
लेकिन मांझी ने अपनी आवाज़ का इस्तेमाल ग़रीबों के लिए कम और खुद की राजनीतिक महत्वाकांक्षा दर्शाने में ज़्यादा किया। वह कूदकर भाजपा के रथ पर सवार हो गए, उन्होंने सोचा कि नीतीश का युग अब बीत चुका है। उनका आकलन ग़लत बैठा और उनको सबसे ज़्यादा नुक़सान उठाना पड़ा।
Source>>> http://www.amarujala.com/
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