महाराष्ट्र में पिछले एक साल में जाति आधारित हिंसाओं के मामलो में बृद्धि हुई हैं । पिछले 12 महीनों में दलितों के खिलाफ हिंसाओं में 7 लोगो की हत्या इस लिए कर दी गयी कयोन की वे निचली जाति से थे। इन सभी मामलो में हत्या निर्ममता पूर्वक तथा विना किसी सम्बेदना के की गयी हैं। इन सब के बाबजूद भी महाराष्ट्र अपने आप को उन्नंत राज्य मानता हैं।
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फोटो:Indian Express |
इन मामलों में से कुछ केवल को ही अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत दर्ज़ किया गया है। हालाकि उन सभी मामलो में जाति आधारित हिंसा के पर्याप्त सबूत थे।राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आकड़ो के विश्लेषण से महाराष्ट्र में 2001-2012 के बीच अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत अपराधों एबं अत्याचार के 3,210 मामलों की रिपोर्ट की थी। महाराष्ट्र में वार्षिक सजा की दर 3 फीसदी से भी कम है और इस लिए महाराष्ट्र में बढ़ रहे जातिगत अपराधो के लिए राज्य को जिम्मेदार मानते हैं। नवीनतम मामला शिरडी में एक युवा दलित छात्र की हत्या का हैं। 16 मई को, नर्सिंग छात्र सागर सेजवाल हत्या सिर्फ इस लिए कर दी थी के उसके मोबाइल की रिंगटोन कुछ लोगो को पसंद नहीं आई।
सागर एक शादी में भाग लेने के लिए अपने घर शिर्डी आया हुआ था। 16 मई को वह अपने दो चचेरे भाइयों के साथ एक स्थानीय बियर-बार में गया हुआ था। उसी समय उसका फ़ोन बज उठा और उस के फ़ोन की रिंगटोन सुन कर कुछ लोग नाराज हो गए। इसी छोटी सी बात पर उन्होंने सागर पर हमला कर दिया और पकड़ के जंगल की तरफ ले गए। कुछ घंटो बाद उस का सब जंगल में मिला। अगर पुलिश भी समय पर कोई एक्शन लेती तो सागर की जान बच सकती थी। जब सागर के चचेरे भाई पुलिस कम्प्लेन करने गए तो पुलिस ने काफी समय बर्बाद कर दिया और इससे मामूली बात बता कर कोई एक्शन नहीं लिया।
पोस्टमॉर्टेम रिपोर्ट से पता चला की किस तरह उसके साथ बर्बरता की गयी थी। उस के ऊपर से कई बार मोटर साइकिल को चलाया गया था जिस से उस के सरीर की कर हड्डिया टूटी हुई थी। बियर-बार के बाहर लगे हुइए सुरक्षा कमरे की मदद से 6 आरोपियों को गिरफ्तार किया गया हैं। सागर के हमलावरों मराठा जाति से हैं।
अन्य छह हत्याएं भी कुछ इसी तरह की समानताएं रखती हैं। उन् सभी में भी हत्या जातीय कारणों से की गयी हैं। सभी मामलों में हमलावर ऊँची जाति, मराठा या ओ.बी.सी समुदाय से थे। चिंता की बात यह हैं की कई जातीय जो की परंपरागत तरीके से ऊँची जातीय नहीं हैं लेकिन आर्थिक रूप से संपन्न होने की वजह से दलितों के लिए कोई भी दया की भावना नहीं रखती हैं।
मामलों में एक और समानता पुलिस का अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत मामला दर्ज करने से इंकार का हैं। पुलिस किन्ही कारणों से मामलो को कमज़ोर करने की कोसिस करती हैं। ज्यादा तर मामले दलितों की जमीन छीनने , प्रेम प्रसंग या फिर ऊँची जातियों के सम्मान से जुड़े होते हैं। लेकिन पुलिस यह मानने को तैयार नहीं होती हैं।
पिछले एक साल में कुछ प्रसिद्ध हत्याओं
पिछले 12 महीनों में दलितों के खिलाफ घातक अपराधों में से कुछ नीचे सूचीबद्ध हैं।
- 3 अप्रैल 2014 को जालना जिले में, एक पूर्व सरपंच गणेश चव्हाण ने एक दलित मनोज कसाब पर हमला कर दिया। हमले की वजह यह थी की मनोज कसाब आरक्षण की वजह से गाँव का सरपंच बन गया था जो गणेश चव्हाण को पसंद नहीं आया। उसे लग रहा था के वो एक दलित को किस तरह से अपना सरपंच मान सकता हैं। कसाब के हमलावर एक मराठा था। चव्हाण और 10 अन्य लोगों के खिलाफ अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया हैं।
- 25 अप्रैल 2014 को औरंगाबाद जिले के एक गांव में उमेश आगले को चाकू घोप कर मौत मौत के घाट उत्तर दिया गया था। उस पर एक ऊंची जाति की लड़की के साथ चक्कर होने का संदेह था। तीन मराठा जाति के लोग उसे बात करने के बहाने उसके घर से बाहर ले गए और उस की हत्या कर के उस के मृत सरीर को एक कुए में फेंक दिया। सुरु में इसे जाति आधारित हिंसा मानने से पुलिश मन करती रही लेकिन जब मामला मीडिया में उछलने लगा तो इससे जाती हिंसा मान कर मामला दर्ज़ किया गया और तीन लोगो को ग्रिफ्तार किया गया।
- तीन दिन बाद 28 अप्रैल को अहमदनगर जिले में एक दलित किशोर को मौत के घाट उतार दिया गया तथा उसके शरीर को एक पेड़ से लटका दिया गया था। हत्या का कारण था उसका एक मराठा लड़की से बात करना । नितिन आघे को लड़की का भाई और एक अन्य आदमी ने उसके स्कूल से उठाया, उसकी खूब पिटाई की और गाला दबाके उस की हत्या कर दी। प्रारम्भिक जाँच तो इसे हत्या का केश भी मानने से इंकार करती रही, जातिगत हत्या की बात तो दूर की बात हैं। लेकिन बाद में इसे बदला गया और मामला अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत दर्ज किया गया।
- 1 मई 2014 को पुणे जिले में माणिक उदागे की हत्या सिर्फ इस लिए करदी कयोंकि उसने अपने गाँव में अम्बेडकर जयंती मानाने की योजना बनाई थी। कुछ मराठा लोगो को इस समारोह पर आपत्ति थी।उसे अपने ही गांव में चार मराठा पुरुषों द्वारा एक पत्थर खदान में कुचल कर मौत मौत के घाट उतार दिया। इस मामले को अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत दर्ज करने में पुलिस को एक साल लग गए।
- एक पखवाड़े बाद 16 मई को एक दलित कार्यकर्ता संजय खोबरागाड़े को गोंदिया जिले में आग से जला कर मार दिया। बह एक ऊँची जाती द्वारा बुद्धा विहार के लिए आवंटित भूमि को गैर क़ानूनी तरीके से हतियाने का विरोध कर रहे था। 90 फीसदी जलने के बावजूद खोबरागाड़े मरते हुए पुलिस को अपना बयान देने में कामयाब रहे जिससे एक पवार परिवार के छह लोगों को गिरफ्तार किया गया ।
- 21 अक्टूबर 2014 को अहमदनगर जिले में एक जातीय हिंसा में एक परिवार के तीन सदस्यों को निर्ममता पूर्वक मार दिया गया। संजय जाधव, उसकी पत्नी जयश्री और उनके बेटे सुनील की सुबह के शुरुआती घंटों में हत्या कर दी गई। तीनो के क्षत-विक्षत शव एक खेत में चारों ओर बिखरे पाए गए। महिला के सिर पर गहरी चोट के निसान थे। इस हिंसा का कारण सुनील और एक ऊंची जाति की लड़की के बीच कथित प्रेम संबंध को जिम्मेदार ठहराया गया। कोई तत्काल गिरफ्तारी नहीं की गयी बल्कि जिस व्यक्ति ने प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज की थी उसी को गिरफ्तार किया गया। बह मृतक आदमी का भतीजा था। पुलिस के अनुसार अपराध का कारण परिवार का आंतरिक विवाद था। मामले को पारिवारिक विवाद बना कर अपराध निवारण अधिनियम के दायरे से बाहर कर दिया गया। प्रारंभिक दावे के बाद सुनील और ऊंची जाति की लड़की के बीच सम्बन्ध के बारे में इससे अधिक कुछ नहीं सुनने को मिला।
- 1 जनवरी 2013 को अहमदनगर जिले में सफाई कर्मचारी (क्लीनर) के रूप में काम करने वाले तीन दलित पुरुषों की हत्या कर दी गयी। 1 जनवरी की सुबह संदीप धनवार, सचिन धारु और राहुल कंडारे को सेप्टिक टैंक साफ करने क लिए प्रकाश दरांडाले (एक मराठा) ने अपने घर बुलाया। शाम को 8 बजे धनवार के एक रिश्तेदार ने पुलिस को फ़ोन किया के वह सेप्टिक टैंक में डूब गया हैं। दो अन्य लोगों जो उस के साथ गए थे उन की लाश भी पास के एक कुए में पड़ी हुई मिली। दोनों के शव कटे-फटे, सिर और शरीर से कटे अंगों के साथ थे जो उनपर किया गए अत्याचार और बर्बरता को दर्शाता हैं । इस मामले में अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत मामले दर्ज किए गए थे और पुलिस इसकी वजह एक दलित और ऊंची जाति की लड़की के बीच प्रेम प्रसंग से संबंधित बता रही हैं।
यह तो बे मामले हैं जिन के बारे में केस दर्ज़ किया गया हैं । ऐसे ही काफी मामले जो मीडिया में नहीं आ पाते दबा दिए जाते हैं तथा केस को रफा-दफा कर दिया जाता हैं। हमारी न्याय प्रणाली तथा नौकरशाही पर ऊँची जातियों का एकाधिकार दलितों को न्याय मिलने में बाधक साबित होता हैं। साथ ही खराब जाँच एवं कानून प्रक्रिया में खामियों की वजह से दलितों पर होने वाले अपराधों में न्याय मिलने की सम्भावना काम ही होती हैं।
लगभग सभी मामलों में आरोपी दलितों के ऊपर गलत केस भी दायर कर देते हैं जिससे गरब दलित और परिवार को उनके मूल मामला वापस लेने के लिए मजबूर किया जाता है। विशेष न्यायालय में भी अधिकारियों एवं आरोपियों के बीच सांठगांठ होती है। पुलिस भी समय पर आरोप पत्र दाखिल नहीं करती हैं।
अत्याचार निवारण अधिनियम दलितों को अत्याचारों बचाने के लिए मज़बूत हतियार हैं लेकिन न्याय प्रक्रिया में तेज़ी लाने की ज़रूरत हैं। न्याय के संवैधानिक और कानूनी उपचार दलितों के लिए मौजूद हैं पर उनके क्रियान्वयन सुस्त है। कई लोगों के लिए यह कोई कानून न होने की तरह है।
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