अब हम क्या किसी #*#* के नीचे काम करेंगे?
मेरे यूजीसी चेयरमैन बनने के आठ दिन के अन्दर मेरे पास एक फ़ोन आया। कोई महिला थी फ़ोन उठाते ही चिल्लाने लगी और बोली क्या हम एक #*#* के नीचे काम करेंगे। वो महिला शायद यूजीसी की ही थी।
मैं चेयरमैन था, मेरा दर्जा केंद्रीय राज्य मंत्री के बराबर था, मैं उस पद के लिए क्वालिफ़ाइड था। दो साल बाद मुझे पद्मश्री मिला। जो लोग कहते हैं कि भेदभाव बड़े लोगों के साथ या फलां फलां दलितों के साथ नहीं होता, वो नहीं जानते कि भेदभाव स्टेटस न्यूट्रल होता है।
जाति का आपकी आर्थिक प्रगति से संबंध तो होता है। आप पढ़े लिखे हों, पैसे वाले हों, आप मंत्री हों तो इज़्ज़त मिलेगी, लेकिन जाति की पहचान और उससे जुड़े भेदभाव को मिटा नहीं सकते।
मैं 50 साल में यूजीसी का पहला दलित चैयरमैन था। पर मैं अकेला नहीं हूँ, बाबू जगजीवन राम केंद्रीय मंत्री थे, जब उन्होंने सम्पूर्णानन्द की मूर्ति का उद्घाटन किया तो उसके बाद उसे धोया गया था।
अगर पहचान केवल आर्थिक तरक्की से मिटती तो अमरीका में अमीर काले लोगों के साथ भेदभाव नहीं होता। इसी तरह से हमारे यहाँ जो महिलाएं बहुत पढ़ी लिखीं हैं, उनके साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए लेकिन होता है।

भेदभाव एक समूह के साथ होता है उसकी पहचान के कारण. आपकी जाति, क्षेत्र, आपके लिंग, रंग से जुडी आपकी पहचान के आधार पर भेदभाव होता है।
दलित छात्र अपने अलग संगठन क्यों बनाते हैं? वो ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि आम संगठन उनके प्रश्नों और चिंताओं को नहीं उठाएंगे, ऊपर से आरक्षण...वो जिस समाज में रहते हैं वहां और अधिक दुश्मनी पैदा करता है।
इन दलित बच्चों को अलग संगठनों के ज़रिए प्राजातांत्रिक तरीके से अपनी बात कहने का रास्ता पता है, इसलिए वो ऐसा करते हैं।
रोहित वेमुला की आत्महत्या के पहले तो पूरे देश में 25 और आत्महत्याएं हुईं पर उस पर पूरे देश में ऐसी प्रतिक्रिया कहीं नहीं हुई।
ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट और मेडिकल साइंसेज़ में दो बच्चों ने आत्महत्या की, मैं दोनों मामलों में जांच के लिए बनी समिति में था, तब तो देश में ऐसी प्रतिक्रिया नहीं हुई।
इस बार इतनी प्रतिक्रिया इसलिए हुई क्योंकि दलित छात्रों ने उसे बुलंदी के साथ उठाया, वो चुप बैठ जाते तो ऐसा ना होता।

अगर विश्विद्यालयों से दलितों के ख़िलाफ़ भेदभाव को दूर करना है तो दो तीन कदम उठाने होंगे। एक तो एक समिति बना कर अध्यन करवा लें कि दलितों के ख़िलाफ़ भेदभाव किस तरह से होता है।
विश्वविद्यालयों में गाँवों की तरह भेदभाव नहीं होता। हालात बदले हैं, लेकिन क्या बातें हैं, दलित छात्र क्या मानते हैं, इसका अध्यन किया जाए. इसके बाद कानून बनाया जाए।
कानून हैं लेकिन उनमें बस यह है कि दलितों के ख़िलाफ़ शैक्षणिक संस्थानों में कोई भेदभाव ना किया जाए।
भेदभाव को परिभाषित कीजिए। दंड का प्रावधान कीजिए। हालात सुधर जाएंगे। यूनिवर्सिटी में हर कोई अपना कैरियर बनाने आता है कोई भेदभाव करने नहीं आता। रैंगिंग का उदहारण हमारे सामने है। कानून बनाने के चार साल के अंदर रैगिंग बंद हो गई।

दूसरा, ऐसी घटनाएं न हों इसके लिए बच्चों को एक दूसरों के प्रति संवेदनशील बनाना होगा। अमरीका में हमारे यहाँ जैसे हालात से लड़ने के लिए उन्होंने अलग अलग समूहों के बच्चों को एक दूसरे के इलाक़ों में जा कर सर्वे करने के लिए कहा. इसका परिणाम बेहद अच्छा था।
तीसरी बात ये है कि यहाँ बच्चों के लिए या तो रेमेडियल क्लासेज़ नहीं चलाई जातीं या फिर नाम मात्र को चलाई जाती हैं, बिना ये सोचे कि उनकी दरअसल ज़रुरत क्या है। चौथा, बात ये भी है कि यूनीवर्सिटीज़ में दलित बच्चों को छात्रों के अलग अलग संगठनों में स्थान देना होगा, अभी ये होता नहीं। इसके अलावा देश से जातीय भेदभाव के सबसे बड़े प्रतीकों को हटाना होगा। मैं प्रधानमंत्री कार्यालय के विजिटिंग रूम में बैठा था वहां ऊपर एक आर्च पर वर्ण व्यवस्था बताता हुआ एक चित्र बना है।
अंग्रेज़ों ने 1924 में इसे बनवाया, जाने कब किसने जातीय व्यवस्था का चित्र दीवार पर बनवा दिया। पर क्या ये कोई ऐसी चीज़ हैं जो हम देश के प्रधानमंत्री से मिलने आने वालों को दिखाएँ?

दूसरा, इसी तरह से राजस्थान हाईकोर्ट के सामने मनु की मूर्ति बनी हुई है। मूर्ति को किसी संग्रहालय में होना चाहिए लेकिन न्याय के मंदिर के सामने मनु की मूर्ति ! अदालत तो समता में, न्याय में भरोसा करती है। उसके सामने मनु की मूर्ति ! वो मनु जिसने दलितों की जगह को सबसे नीचे बताया है.
Source: The article was originally Published on www.bbc.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें
(
Atom
)
कोई टिप्पणी नहीं :
टिप्पणी पोस्ट करें